विश्व कवि गोस्वामी तुलसी दास ०२
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भारतीय भाषाओं के विकास एव इतिहास के प्रति अपनी अनभिज्ञता पर
श्रावरण डाल कर जान अथवा अनजान में त्रिपाठी जी ने एक तथ्य की अवहेलना की
है, और पाठकों पर भी उस भ्रान्त धारणा को लादना चाहा है। भाषा के इतिहास
का थोड़ा भी जानकार व्यक्ति इस बात को भली भाँति समझता है कि हिन्दी क्रमश
सस्कृत, पालि, प्राकृत और अपनश की अवस्थाओं के बीच विकसित होती हुई अपने
आधुनिक रूप में आई है और तुलसी के बहुत पहले कधीर, जायसी प्रभृति कवियों के
काल में ही साहित्य क्षेत्र के अन्तर्गत माकृत न तो बोलचाल की और न साहित्य की
ही भाषा के रूप में प्रचलित रह पाई थी।
इस ऐतिहासिक दृष्टि से न विचार कर साधारण दृष्टि से ही देखें, तो भी
तुलसी का केवल अपने एक ग्रन्थ में एक स्थन पर 'प्राकृत कवि' (जे प्राकृत कवि परम
सयाने । भाष जिन्ह हरिचरित बखाने (1) का उल्लेख, उनकी भाषा को 'प्राकृत' का
अर्थ दे देने में असमर्थ है। यहाँ पर 'भाषा' से हिन्दीके अर्थ का तथा 'भाषा-व्याकरण
से हिन्दी-व्याकरण के ही अर्थ का बराबर ग्रहण होता आया है, न कि 'प्राकृत' का।
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आध्यात्मिक पथ के प्रसिद्ध साधक गोस्वामी तुलसीदास सिद्ध कवि और वाणी केसम्राट् थे । भाषा पर उनका असाधारण अधिकार था। साथ ही उनकी रचनाओं की विशेषता
इस बात में है कि उनके भीतर उनका अपना भाषाविषयक निजी दृष्टिकोण व्याप्त है।
तुलसी का यह दृष्टिकोण वर्षों से साहित्य के अन्तर्गत चली आती हुई लोक-भापा के व्यवहार
की परम्परा में एक महत्त्वपूर्ण स्थिति का द्योतक है। वे अपनी लगभग सारी व्यक्तिगतप्रवृत्तियों के भीतर समकालीन भाषा-सम्बन्धी मान्यताओं का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते दिखाईदेते हैं। यही कारण है कि उनकी भाषा उनकी विभिन्न रचनाओ में विविध रूप-रगो के साथ
विद्यमान है ।
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तुलसी की अपनी भाषाविषयक धारणा का सकेत, उनके दो ग्रंथो में हुआ है-
(१) दोहावली (२) रामचरितमानस । 'दोहावली' के अन्तर्गत वे कहते है :-
का भाषा का संस्कृत, प्रेस चाहिये साँच ।
काम जु आवै कामरी, का लै करें कुमाच ॥
और 'मानस' में इसी प्रकार का कथन है:-
भाषा बद्ध करवि मैं सोई । मोरे मन प्रबोध जेहि होई ॥
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भापा बोलि न जानही, जिनके कुल के दास ।
भाषा कवि भो मंद मति, तेहि कुल केशवदास ।। केशव
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जब से तुलसीदास की रामायण का प्रचार बड़ा, तब से वेदों के प्रति जनता की श्रद्धा तथा उनके अध्यन की अभिरुचि ही समाप्त हो गई। उनकी
समझ में वैदिक साहित्य के प्रचार एव प्रसार में तुलसी का रामचरितमानस एक बडा भारी
कटक रहा है ।
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इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि तुलसी का युग राजनैतिक दृष्टि से एक ऐसा युग
था, जिसका शासन सूत्र ऐसे मुसलमानो के हाथ में था, जो अभारतीय भाषा-भाषी तथा बहुत
अशों में भारतीय भाषा-विरोधी थे । इस समुदाय की रग-रग में अपने धर्म और अपनी सस्कृति
के साथ-साथ अपनी भाषा के प्रचार की प्रवृत्ति भी बहुत प्रबल थी और किसी न किसी साधन
द्वारा उसका भी जनता में प्रचार करना उनका एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम बना हुआ था। यहाँके सामाजिक जीवन की अन्य अवस्थाओं की भाँति भाषा-सम्बन्धी धारणाओं को भी अधिक
तीव्रगति से प्रभावित करने के अभिप्राय से राजकीय क्षेत्र में तदनुकूल परम्पराएँ चलाई
गई। इनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय है सारी भारतीय भाषाओं की अवहेलना करके फारसी
को राजभाषा वनाना
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कवि जिस भाषा में रचना कर रहा है उस भापा का कोई प्रामाणिक व्याकरण कवि
के रचनाकाल में स्थिर हो चुका है या नहीं, यह प्रश्न भी महत्त्व का है क्योंकि बिना व्याकरणव्यवस्था के कवि द्वारा उसके नियमों के अनुसरण की चर्चा ही व्यर्थ है।
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रामचरितमानस हिन्दी-भाषियों का प्राण है,
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अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणा लीन ।
अधम व्यंजना रस कुटिल, उलटी कहत नवीन ।।
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तिन्ह तें खर सूकर स्वान भले जड़ता बस ते न कहूँ कछु वै ।
तुलसी जेहि राम सों नेह नहीं,सों सही पसु पूँछ बिधान न है ।
जननी कत भार मुई दस मास भई किन्छ बॉक गई किन वै ।
जरि जाउ सो जीवन जानकीनाथ जिये जग में तुम्हरो बिनु है ॥
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अतुलित महिमा वेद की, तुलसी किये विचार ।
जो निदित निदित भयो, विदित बुद्ध अवतार ॥
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तुलसी की रचनाओं का क्रम इस प्रकार जान
पड़ता है :-
रामललान इछू, वैराग्य सदीपिनी, रामाशाप्रश्न, जानकीमगल, रामचरितमानस, पार्वतीमगल, बरवै रामायण, विनयपत्रिका,दोहावली, कवितावली,गीतावली,
और श्रीकृष्णगीतावली ।
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