गोस्वामी तुलसीदास
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रत्नावली तथा तुलसी को चरितनायक बनाकर अनेक कृतियां हिन्दी में
लिखी गयी हैं, जैसे
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१ रत्नावली (काव्य)
२- तुलसीदास (खण्ड काव्य)
४
३- तुलसी दास (नाटक)
तुलसी दास
५- सन्त तुलसी दास
उत्तरायण (महाकाव्य)
मैथिली शरण गुप्त
सूर्यकान्त त्रिपाठी " निराला"
उदय शंकर भट्ट
कुँवर चन्द्र प्रकाश सिंह
डा० राम कुमार वर्मा
६-
19- रत्ना की बात
डा० राम कुमार वर्मा
डा० प्रेम नारायण टण्डन
मानस का हंस (उपन्यास) अमृतलाल नागर
ξ- रत्नावली चरित जय गोपाल मिश्र
१०- सोरों का संत रामकृष्ण शर्मा आदि ।
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'भारतीय हिन्दी परिषद् के तत्त्वावधान में दिल्ली विश्वविद्यालय में ३१ मई१६६० को डॉ० धीरेन्द्र वर्मा की अध्यक्षता मे एक विचार गोष्ठी हुई। इसका विवरण६ जून १६६० के साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुआ। विभिन्न विचार सत्रो मेआचार्य विनय मोहन शर्मा, आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी, डॉ. नगेन्द्र, पं० वेदव्रतशास्त्री, डॉ राम दत्त भरद्वाज, डॉ. उदयभानु सिंह, डॉ. गोवर्धन लाल शुक्ल, श्रीरामनरेश त्रिपाठी, डॉ० माता प्रसाद गुप्त, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्यविश्वनाथ प्रसाद मिश्र आदि विद्वान सम्मलित हुए। इनमें डॉ. हरवंश लाल शर्मारामनरेश त्रिपाठी, पेदव्रत शास्त्री और डॉ० राम दत्त भारद्वाज सोरों के समर्थन मेथे, शेष उसके विरोध में तुलसी साहित्य के शीर्षस्थ विद्वान आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने घोषित किया कि सोरों समर्थक ये गजेटियर जनश्रुतियो परआधारित हैं, इसलिये मान्य नहीं है। एक ही गजेटियर में सोरो का नाम है औरमहेवा का भी उल्लेख है,जिसे राजा पुर बांदा के पक्षधर तुलसी की ससुराल मानतेहै। इस प्रकार इन गोष्ठियों में सोरों विषयक सामग्री को प्रमाणपुष्ट नहीं मानागया। पं० वेद व्रत शास्त्री (सोरों) का मत है कि गोष्ठी अनिर्णित रही, जबकिअधिसंख्य प्रतिभागियों का मत है कि सोरो पक्ष निरस्त हो गया था।
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लखनऊ गोष्ठी
लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में ६,७ जनवरी १६६७ को एकराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया और उसमें राजापुर (बादा) सोरों (एटा)और राजापुर (सूकरखेत,पसका गोण्डा) से जुड़े समस्त विद्वानो को आहूत कियागया कि वे अपने-अपने साक्ष्यों एवं प्रमाणों का सार्वजनिक प्रदर्शन करें। पुरानेदस्तावेज की मूल जाँच करके और बहस सुनकर निर्णय देने का दायित्वउच्चन्यायालय (लखनऊ पीठ) के दो अवकाश प्राप्त न्यायमूर्तियों (जस्टिस सहायऔर जस्टिस माथुर) को सौंपा गया। इस गोष्ठी में बाँदा,एटा,गोण्डा तीनों कोएक-एक सत्र दिया गया। तीनों के अपने चुने हुए आठ-दस वक्ता मंच पर आयेऔर समय की सीमा में उन्होनें अपने-अपने तर्क रखे । चौथे सत्र (खुले अधिवेशन)मे श्रोताओं की टिप्पणियां सुनी गयीं, परस्पर शास्त्रार्थ हुआ और फिर दोनोन्यायमूर्तियो की व्यवस्था के अनुसार निर्णय को इसलिये सुरक्षित रख लिया गयातुलसी जन्मभूमि &o
कि कुछ विद्वान अपने साथ मूल प्रमाण नहीं ला पाये थे। न्यायमूर्तियों का यह भीविचार था कि यथासमय वे स्थल - निरीक्षण भी करेंगे। किन्तु एतदर्थ साधन सुलभनहीं हो पाये। इस गोष्ठी में सोरों पक्ष से पं० देवव्रत शास्त्री के नेतृत्व में अनेकविद्वान लखनऊ आये। राजापुर बादा का नेतृत्व पाण्डेय बन्धु ने किया। राजापुर(गोण्डा) का नेतृत्व डॉ० भगवदाचार्य ने किया। विभिन्न विश्वविद्यालयों महाविद्यालयोके विद्वान शोधार्थी,पत्रकार और तुलसी के प्रबुद्ध पाठक भारी संख्या में इसमेसम्मिलित हुए। इस गोष्ठी में राजापुर (गोण्डा) का पक्ष प्रबल रहा।
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सनातन धर्म परिषद की गोष्ठियां
विगत २३ अप्रैल ६४ को लखनऊ में एक विचार-गोष्ठी प्रदेश के पूर्वमुख्यमंत्री पं० श्रीपति मिश्र की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। मुख्य समागत न्यायमूर्तिश्री तिलहरीने इसमें स्पष्ट उद्घोष किया कि तुलसी अवध अंचल में ही जनमे थे।विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो० महेन्द्र सिंह सोढा और हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो० सूर्यप्रसाद दीक्षित ने इस खोज की प्रक्रिया पर विस्तृत प्रकाश डाला। इस गोष्ठी केअनेक वक्ताओं, शिक्षकों, पत्रकारों साहित्यकारों ने राजापुर (गोण्डा) के जन्म भूमिहोने की पुष्टि की । सनातन धर्म परिषद की बम्बई संगोष्ठी (१६६८) हिन्दी साहित्यसम्मेलन प्रयाग संगोष्ठी तथा हिन्दी संस्थान लखनऊ में आयोजित संगोष्ठी काभी यही प्रतिपाद्य रहा। परिषद् ने अनूप जलोटा, श्री लल्लन प्रसाद व्यास आदिके कई कार्यक्रम यहां आयोजित करायें हैं। विगत २ अगस्त १६६६ को राजापुर(गोण्डा) में आयोजित संगोष्ठी में पं० राम किंकर उपाध्याय जी ने घोषणा की'आज मैं गोस्वामी जी की जन्म भूमि में आ गया हूँ । इस गोष्ठी में अयोध्या केअनेक सन्तों तथा कई प्रमुख हिन्दी विद्वानों ने अपने-अपने उद्गार व्यक्त किएजिनमे उल्लेखनीय है- सर्वश्री नृत्यगोपालदास जी, माधवाचार्य जी,राममंगलदास जी, पं० बलदेव प्रसाद चतुर्वेदी,रामानुजाचार्य जी, स्वामी पुरषोत्तमाचार्य जी।इसी क्रम मे २० अगस्त १६६६ को वाल्मीकि भवन, अयोध्या में "तुलसी सम्मेलनआयोजित किया गया, जिसमें प० श्री पति मिश्र एवं स्वामी नृत्यगोपालदास नेसूकरखेत के पक्ष में महत्वपूर्ण वक्तव्य दिये। वस्तुतः सनातन धर्म परिषद् और डॉ०भगवदाचार्य की सक्रियता इस क्षेत्र में सर्वाधिक सराहनीय है।
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राजापुर गोष्ठी
'तुलसी सेवा समिति' राजापुर (बाँदा की ओर से १० अगस्त १६६७ को एकसगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमे अनेक विद्वान (तुलसी विशेषज्ञ) सम्मिलितहुए। इस अवसर पर "राजापुर तुलसी की गाथा नामक एक स्मारिका भीलोकार्पित की गयी। इस स्मारिका का समवेत स्वर यही है कि विद्वानों ने राजापुर(बॉदा) के अतिरिक्त तुलसीदास की जन्म स्थली अन्यत्र होने की सम्भावना व्यक्तकी है,जो विकृत मस्तिष्क का अनर्गल प्रलाप है। और यह एक षड़यन्त्र है। इनविद्वानो के मतानुसार तुलसी जन्म स्थली का विवाद ही नही उठाया जाना चाहिएथा। वे यह तो मानते हैं कि राजापुर (दादा) में तुलसी के पैदा होने का कोई पुष्टप्रमाण (यानी सनद नही है,लेकिन पिछले २०० वर्षों से राजापुर (बाँदा) को हीअधिकतर विद्वानों ने जन्मस्थली मान रखा है, इसलिये उसके समक्ष अब प्रश्नचिन्हनहीं लगाया जा सकता है। इन विद्वानों को यह समझा पाना कठिन हो गया हैकि अनुसंधान के क्षेत्र में कोई भी मान्यता अंतिम नहीं होती, इसलिये नये तथ्योएव तक के आधार पर पुनः पुनर्विचार करते रहने के लिये हमें अपने मस्तिष्क केगवाक्ष सदैव खोल कर रखने होंगे।
इन संगोष्ठियों में जितनी दलीलें दी गयी हैं, वे दीर्घकाल तक तुलसी केचित्रकूट वासी होने का प्रमाण हैं, जबकि प्रश्न जन्मस्थली का है। प्रसिद्ध उक्तिहै- "वादे वादे जायते तत्वबोध । हमें आशा करनी चाहिए कि इन विचारगोष्ठियोद्वारा हम कभी न कभी किसी समवेत निष्कर्ष पर पहुंचेगें। अब वह समय दूर नहींहै, जब क्षेत्रीय राजनीति अथवा रागद्वेष का ज्वर और ज्वार थम जायेगामानसकार की अन्तःप्रेरणा से हिन्दी लोकमानस में सद बुद्धि पूर्ण साहित्यिक न्यायका संचार होगा और तब नीर क्षीर विवेक के सहारे तुलसी की जन्मस्थली का सगतसमाधान भी प्राप्त हो जायेगा।
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गोस्वामी जी के जीवनवृत्त के सम्बन्ध मे विभिन्न तिथियों के उल्लेख किये
गये हैं। उन पर भी विचार करना आवश्यक है। उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं
और रचनाओं के वर्ष विद्वानों ने इस प्रकार निर्धारित किये हैं-
१. जन्म सं० १५५४ श्रावण शुक्ल सप्तमी
२.यज्ञोपवीत (सं० १५६१) शिक्षा रामानंद पीठ काशी में गुरुशेष सनातन जी
के साथ ।
३. रामलला नहछू की रचना- (सं०१६१६) पार्वती मंगल (१६१६) जानकी
मंगल (१६१६) ४. गीतावली की रचना सं० १६१६ ५..श्री कृष्ण गीतावली
की रचना (१६१६ से १६२८ के मध्य) ६ कविन्त रामायण (कवितावली)
- १६२८ ७. 'श्री रामचरितमानस रचनारंभ वैशाख ६,१६३१
समाप्ति रामविवाह सं० १६३३८विनय पत्रिका सं० १६३६ ६. दोहावली,
सं० १६४० १०. सतसई, सं० १६४२ ११. बरदै रामायण, हनुमान बाहुक,
वैराग्य संदीपनी,रामाझाप्रश्न सं० १६७०/१२. निधन श्रावण कृष्ण ३सं०
१६८०
इन तिथियों से स्पष्ट है कि उनका रचनाकाल ६२ वर्ष की अवस्था से शुरू
हुआ और ११६ की आयु स० १६७० (५४ वर्षो) तक चलता रहा।
१३. जीवन के अन्तिम १० वर्षों तक गोस्वामी जी ने कोई लेखन कार्य नही किया।
१४. उन्हें कुल १२६ वर्षों का जीवन मिला। इस अवधि मे उन्होंने अकबर
(१५६३-१६०५),जहांगीर (१६०५-१६२७) शाहजहाँ और औरंगजेब का शासन काल
देखे ।
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गोस्वामी जी ने "रामचरितमानस” में चूँकि सूकरखेत का उल्लेख कर दियाहै, इसलिये राजापुर-चित्रकूट, सोरों और राजापुर (गोण्डा) के पक्षधर अपने-अपनेस्थानों को असली सूकरखेत सिद्ध करने में जुटे हुए हैं। विद्वानों ने मिलजुलकरपूरे देश में ३५ सूकरखेत खोज निकाले हैं। वस्तुतः सूकरखेत का सम्बन्धमहावाराह के उपासना क्षेत्र से है। प्रतिहारवंशी वाराहावतार या महावाराह कोआराध्य मानते हैं, इसलिये उत्तर भारत में जहाँ जहाँ प्रतिहारों का राज्य था, वहाँवाराह-वाराही के मन्दिर प्रायः मिल जाते हैं। चित्रकूट भी वाराहक्षेत्र में आता है।यद्यपि आज तक चित्रकूट से संबन्धित विद्वानों ने अपने आस-पास कहीं किसीवाराह मन्दिर या सूकरखेत का दावा नहीं किया था। अब तक उनकी मान्यता यहरही है कि तुलसी का जन्म यहाँ राजापुर में हुआ था। यज्ञोपवीत के पश्चातलगभग १५ वर्षों की अवस्था में वे सूकरख्त चले गये थे और वहाँ राम-कथासुनकर और फिर काशी में "नानापुराण निगमागम" का ज्ञान प्राप्त करके साहित्यसाधना में प्रवृत्त हुए थे। इस बीच उन्होनें राजापुर, अयोध्या, चित्रकूट एवं काशीमे निवास किया था।
किंतु विगत दो-तीन वर्षों में चित्रकूट के पक्षधरों को यह लगा कि इसविवाद का काफी दारो मदार सूकरखेत पर है। इसलिये उन्होंने कामदगिरिपरिक्रमा मार्ग (चित्रकूट ) में एक ऐसी चट्टान खोज निकाली, जिसकी आकृतिकुछ-कुछ वाराह से मिलती हुई है। पास ही दो छतारियां मिल गयीं और एकपहाड़ी गुफा अथवा झोपड़ी। इन छतरियों पर वार्निश पेण्ट से गुरु नरहरि औरतुलसीदास का नाम लिखा दिया गया। वहाँ पर दो मूर्तियां रखा दी गयी और उसझोपड़ी को नरहरि आश्रम का नाम दे दिया गया। अर्थात् सूकर खेत वाराह मन्दिरऔर नरहरि आश्रम सब चित्रकूट में ही प्रकट हो गये। पहले यह तर्क दिया जारहा था कि राजापुर (बाँदा) में उत्पन्न कोई बालक लगभग ३५० किमी० की यात्राकरके सारों वाले अथवा लगभग २०० किमी० दूर पसका (गोण्डा)वालें सूकर खेततक कैसे पहुँच पायेगा? वहा बार बार कैसे जा सकेगा? जबकि परिवहन केसाधन थे नहीं? इस तर्क को निरुत्तर करने के लिये राजापुर से मात्र ३० किमी०की दूरी पर ही अब सारी व्यवस्था करा दी गयी है। चित्रकूट जैसे पवित्र तीर्थ मेतुलसी जन्मभूमि এ
ढूंढने से न जाने कितनी गुफायें, अनाम खण्डित मन्दिर, छतरियाँ या समाधियाँ मिलजायेगी। मात्र एक झण्डा और एक साइन बोर्ड लगाकर रातो रात कोई भी
साक्ष्य तैयार किया जा सकता है। यह अपकृत्य मात्र इस कथन का प्रमाण है किराजापुर चित्रकूट के पक्षधरों को अपना दावा दुर्बल प्रतीत होने लगा है और वे अब
उसकी क्षति पूर्ति के लिये अन्य प्रकार के कृत्रिम साक्ष्यों को प्रायोजित करने में लगेहुए हैं।
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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन है कि सूकरखेत को भ्रम से सोरो मान लिया गया है। सूकर खेत गोण्डा जिले में सरयू के किनारे एक पवित्र तीर्थहै जहां आस-पास के लोग स्नान करने जाते हैं। यहां मेला लगता है" (हिन्दीसाहित्य का इतिहास, पृष्ठ १२६)
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प्रसिद्ध कथा वाचक बंदन पाठक ने दी है। उनकीमान्यता के आलोक में बालक राम जी विनायक ने एक "तुलसीनामावली" प्रस्तुतकी है। इस संबंध में एक लेखमाला जबलपुर के 'युगधर्म' के १४ जुलाई १९८५ मेआठ अंकों में प्रकाशित हुयी थी। इसके पीछे महंत गंगादास जी का कुछ अपनाशोध कार्य रहा है। इन सबके अनुसार चार तुलसीदास बताए जा रहें है--
तुलसी जन्मभूमि टे
प्रमाण स्वरूप बंदन पाठक द्वारा रचित कविता के ये अंश प्रस्तुत किये गये"तैसे तुलसी चारि भये हैं नर भाषा के ।
चारो बरने रामचरित भगती रस छाके ।
एक महारिषि आदि कवि द्विज बंदन भये शापवश ।
मानसजुत बारह रतन प्रकटे धारे शांत रस ।।
दूजे तुलसी तुलाराम जी मिसिर पयासी ।
देवीपाटन जनमकुटी तुलसीपुर बासी ।
तीसरि पत्नी रत्नावली कटु बचनहिं लागी ।
रोवत चले बिसारि भवन भये रसिक बिरागी ।
रामायन तिनहू रचे लवकुश मानस संत हित ।
द्विज बंदन 'जानकी विजय',गंगा कथा,क्षेपक सुकृत ।।
तीजे तुलसी जनम नाम शुचि सोरों वारे ।
छप्पय, छन्दावली, कुण्डलियां, कड़खा चारे ।
चौथे तुलसी संत हाथरस वारे भारी ।
'घंट रामायण' रचे सोहागिन सुरति बिहारी ।।
द्विज बंदन तीनों कथै श्रीमानस छाया छुए
मानस अधिकारी भले नाम उपासक सब भए ।।
इनके अनुसार मध्य युग में समानान्तर ये चार तुलसी हुए हैं-
मानस कार तुलसी
(२) देवीपाटन (तुलसीपुर) वाले तुलाराम मिसिर उर्फ तुलसी(१)
(3) सोरों (जिला एटा) वाले तुलसी
(४) हाथरस वाले संत तुलसी ।
इन चारों की जन्ममृत्यु-तिथि, माता-पिता पत्नी आदि से युक्त वतथा रचनाओं का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-
In मानसकार
तुलसी
तुलाराम
तुलसी
सोरोंवाले
तुलसी
हाथरस
तुलसी साहिजन्मतिथि श्रावणशुक्ल चैत्रशुक्ल उपलब्ध १८२० संवत७ संवत १५५४ एकादशी नहीं
संवत् १६८७
सन्मभूमि 03
२. जन्मस्थान राजापुर देवीपाटन सोरों
३ निधनतिथि श्रावणकृष्ण ३
संवत् १६८०
४. बचपन का रामबोला तुलाराम
नाम
तुलसीदास
गोसाई
हाथरस
ज्येष्ठ शुक्ल
संवत् १८६६ या
१६००
तुलसी साहिब
५ पिता का आत्माराम दुबे मुरारि मिश्र
नाम
६. माता का हुलसी देवी
नाम
19 पत्नी का (अविवाह) रत्नावली रत्नावली
नाम (तीसरी पत्नी)
ם. बचपन की अति दरिद्रता धनधान्य सामान्य सामान्य
आर्थिक दशा युक्त सम्पन्न
६. वैराग्य का आत्मप्रेरणा पत्नी के पत्नी से आत्म प्रेरणा
कारण वाक्वाण प्रेरणा
१०. जीवनी के मूल गोसाई १. इतिवृत १. गुलिस्तां आत्मचरित
स्रोत चरित, भवानी तुलसी -ए-बेदिल धटरामायण
दास (बाबा २. तुलसी २. तुलसी
बेनीमाधवदास) चरित तत्व प्रकाश
११. ग्रन्थ रामचरित मानस लवकुश छप्पय धटरामायण
गीतावली काण्ड, रामायण,
कविता वली गंगावतरण, कुंडलिया
विनय पत्रिका जानकीस्तव रामायण,
दोहा वली दंड,क्षेपक, छंदावली
जानकी मगल स्फुट रामायण
पार्वती मंगल कडरवा
वैराग्य संदीपन रामायण
रामलला नहहू,
कृष्णगीतावली,
रामाज्ञा प्रश्न,
तुलसी जन्मभूमि
बरवै रामायण
86)
१२ प्रकाशक गीता प्रेस
गोरखपुर
वेंकटेश्वर मुशी नवल वेल्वेडियर
प्रेस बम्बई किशोर प्रेस
लखनऊ १८७४ ई०
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तुलसीदास और उनकी कविता- इस अन्ध के अन्तर्गत श्री रामनरेश
त्रिपाठी ने तुलसीदास जी के काव्य के अन्य पक्षों के साथ-साथ उनकी भाषा के विषय
में भी यत्र तत्र स्फुट रूप में अपना विवेचन प्रस्तुत किया है। इसमें कोई सन्देह
नहीं कि उक्त विवेचन के पीछे त्रिपाठी जी के किसी विशेष शास्त्रीय अथवा
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पता उतना नहीं चलता, जितना कई अन्य अवान्तर प्रसगों
पर बल देने की प्रवृत्ति का, उदाहरणार्थ, अपनी इस धारणा को प्रमाणित करने
की उनकी बलवती प्रेरणा कि तुलसी का जन्म-स्थान सोरों ही था। कुछ भी हो,
अपनी सारी न्यूनताओं के साथ उन्होंने, तुलसी की भाषा के कलापक्ष तथा
भाषावैज्ञानिक पक्ष के कतिपय प्रचलित एवं व्यापक अगों के आधार पर तुलसी द्वारा
व्यवहृत मुहावरों, कहावतों और अलंकारों आदि का स्फुट संकलन करते हुए, तथा कुछ
प्रान्तीय भाषाओं और कुछ हिन्दी प्रदेश की बोलियों के कतिपय शब्द-रूपों को ढूँढ
निकालने का उद्योग करते हुए, जो सामग्री हमारे समक्ष रखी है, उसका प्रस्तुत अध्ययन
में उपयोग किया गया है। वस्तुतः उनके प्रयत्न में यदि सब से अधिक खटकने वाली
बात कोई है तो वह यह है कि उनकी दृष्टि प्रायः अन्तरंग विश्लेषण में न पहुँच कर
बहिरंग आधार पर ही विशेष केन्द्रित रही। यही कारण है कि विविध रूपों के सकलन
में वे अपने परिश्रम द्वारा जितनी सफलता प्राप्त कर सके है उतनी उन संकलित रूपों
कीशास्त्रीय व्याख्या एवं मूल्यांकन करने में नहीं । कहीवहीं तो उनके निर्णय और
निष्कर्ष बड़े ही हल्के स्तर पर उत्तर आए है। इन्ही बातों के फलस्वरूप उनकी
मान्यताओं में अपेक्षित गांभीर्य का अभाव रहा और उनका श्रम उपयोगी होते हुए भी विशेष विश्वसनीय नहीं सिद्ध हो सका ।
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मानस-व्याकरण- मानस सघ, रामवन (सतना) से प्रकाशित यह ग्रंथ
हिन्दी में रामचरितमानस की भाषा के एक महत्त्वपूर्ण पक्ष-व्याकरण-के अध्ययन का
( १०)
पहला प्रयास है। इस दृष्टि से, विषय तत्व की समानता के आधार पर, हम इसे
एडविन ग्रीन्स के 'रामायणीय व्याकरण (नोट्स थान दि ग्रॅमर श्राफ रामायण ग्राफ
तुलसीदास) के जोड़ में रख सकते हैं। ग्रंथ की उक्त ऐतिहासिक उपयोगिता के विषय
में कोई अविश्वास न करते हुए भी, उसमें उपलब्ध सामग्री और उसमें अपनाए गए
दृष्टिकोण की वैज्ञानिक उपादेयता सदेह से खाली नहीं कही जा सकती। यह घोषित
कर के, कि 'तुलसी ने भाषा शब्द से 'प्राकृत भाषा' का अर्थ ग्रहण किया है, त्रिपाठी
जीकदाचित सत्य से बहुत दूर चले गए हैं। वे स्पष्ट लिखते हैं :-
"यह ग्रंथ अथ से इति तक प्राकृत भाषा में है और श्लोक भी पृथ्वीराजरायसो
के श्लोकों की भाँति प्राकृत में है, क्योंकि प्राकृत नियमों से नियमित है और प्राकृतव्याकरण के अनुसार शुद्ध हैं