विश्व विजेता बन गयीं, रच दीन्हिन इतिहास।
भारत काही गर्ब है, बाह बिटिअव सब्बास ।।
बघेली साहित्य -का संग्रह हास्य व्यंग कविता गीत ग़ज़ल दोहा मुक्तक छंद कुंडलिया
थहाँ रामायण की आधिकारिक कथावस्तु से सीधा सबंध रखने बाले पात्रों का अभिप्राय है। विश्वामित्र, अगरूय, बसिष्ठ और भरद्वाज ऋग्वेद के ऋषि हैं, बाऊकाड और उत्तरकांड की विविध अंतरकथाओं के ” यात्रों के नाम वदिक साहित्य में मिलते है । उनका यहाँ पर उल्लेख नहीं होगा ।
विद्यापति के समय अर्थात् पन्द्रहवीं शताब्दी के पूर्वाद में ही हिन्दी में नाटक लिखने की प्रथा का सूत्रपात हुआ था। तब से लगभग दो सौ वर्ष पर्यन्त इस विषय में कई कारणों से कुछ भी न हो पाया । सत्रहवीं शताब्दी के उत्तराद्ध में नेवाज कवि ने पहले पहल महा- कवि कालिदास के संस्कृत शकुन्तला नाटक के आधार पर 'शकुन्तला- उपासवान' लिखा जो उन दिनों को दृष्टि से अब तक नाटक के नाम से पुकारा जाता है। इस पुस्तक में और आजकल के लिखे हिन्दी नाटकों में बड़ा अन्तर है। परन्तु विद्यापति के नाटको से इसमें यह विशेषता है कि इसमें बिहारी नाटकों के समान मैथिली और संस्कृत की खिचड़ी देखने को नहीं मिलती। पूरी पुस्तक लगभग एक ही भाषा में है। एक बात स्मरण रखने योग्य है कि उर्दू साहित्य में भी नाटक का आरम्भ किसी हिन्दू द्वारा किये गए शकुन्तला के अनुवाद से ही फर्रुखरियर के समय में होता है। अठारहवीं शताब्दी के हिन्दी नाटककार, नाट्यकला की दृष्टि से, नेबाज से अधिक कुछ भी नहीं कर पाये देव तथा ब्रजवासी दास आदि के नाटक इस विषय में शकुन्तला - उपाख्यान से अच्छे नहीं कहे जा सकते । इन उपयुक्त नाटकों में न तो आधुनिक नाटकों के से टीक-टीक विभाग किये गए हैं और न स्थाना- नुसार पात्रों के आने-जाने अथवा और किसी प्रकार के नाट्य करने के संकेत ही दिये गए हैं। यह सभी वास्तव में कोरे काव्य के काव्य हैं। ऐसे ही नाटक उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाद तक देखने को मिलते हैं। सन् १८५० के लगभग लिखे गए बिहारी कवि भानुनाथ झा के 'प्रभावती हरण' नामक नाटक में कुछ विशेषता अवश्य है, किन्तु वह भी बहुत थोड़ी । महाराजा विश्वनाथ सिंह के 'आनन्द रघुनन्दन नाटक की भी यही दशा है। आधुनिक हिन्दी नाटक लिखने का आरम्भ भारतेन्दु बाबु हरि- श्चन्द्र के अनुसार उनके पिता बाबू गोपालचन्द्र द्वारा लिखे हुए 'नहुप नाटक से होता है। यह पुस्तक सन् १८५७ के लगभग लिखी गई थी, किन्तु अब तक इसे पढ़ने का सौभाग्य बहुत कम लोगों को प्राप्त हुआ होगा। इन्हीं बाबू साहब ने सर्व प्रथम हिन्दी में नियमानुसार महाकाव्य की रचना की थी। परन्तु इनका 'जरासन्ध-वध' महाकाव्य भी 'नहुप' नाटक के ही समान अभी तक देखने को नहीं मिला । उर्दू साहित्य में अच्छे नाटकों का श्रारम्भ इससे २० वर्ष बाद अर्थात् १८७७ से होता है और तभी से उर्दू नाटककार लगातार थोड़ी-बहुत उन्नति करते चले आ रहे हैं। हिन्दी साहित्य के नाटक विभाग के लिए ये दिन बहुत ही अच्छे थे। इसके कुछ ही दिनों के उपरान्त राजा लक्ष्मण सिंह, लाला श्री निवासी दास, पं.० केशवराय भट्ट, बाबू तोताराम, आदि ने कई नाटक लिखे । किन्तु इनमें से अधिकतर इतने बड़े-बड़े बन गए कि उनको आजकल, विना काँट छाँट किये खेलना असम्भव सा हो गया है। बदरीनारायण चौधरी का 'भारत-सौभाग्य' नाटक इसका सबसे बड़ा उदाहरण कहा जा सकता है। इस समय के नाटकों में सबसे अच्छे भारतेन्दु बाबूहरिश्चन्द्र के ही नाटक कहे जा सकते हैं। किन्तु इनके १८ वा १६ नाटकों में से सबके लिए ऐसा कहना भी भारी भूल है। इनके द्वारा अनुवादित नाटक विशेषकर अच्छे हैं। कभी-कभी तो उनमें मौलिक नाटक का भ्रम हो जाया करता है। इन सबके संब नाटकों में यह एक विशेषता है कि इन्हें किसी प्रकार रंगमंच पर खेल सकते हैं और भारतेन्दु-युग में रखें हुए नाटकों से इसी कारण, एक नये युग का आरम्भ होता है। इनके द्वारा अनुवादित तथा नये सिरे 0 से लिखित कुछ नाटकों में इतनी सफलता मिली कि बहुत से लोगों ने इन्हीं का अनुकरण करके नाटकों का लिखना आरम्भ कर दिया । संस्कृत, प्राकृत तथा अंग्रेजी नाटको का अनुवाद होने लगा। कभी नये, कभी सामाजिक, पौराणिक अथवा अत्यान्य प्रकार के नाटक मंच पर खेलने के उद्देश्य से लिखे जाने लगे । सबसे पहले सन १८६८ में 'जानकी मंगल' नामक हिन्दी नाटक काणी में खेला गया था । तब से यदि उचित परिश्रम हुआ होता और लोगों की रुचि इस ओर सफलता पूर्वक खिंची होती, तो आज तक हमारे नाटक सम्भव था, किसी भी दूसरी भाषा के नाटकों से कभी पिछड़ नहीं जाते । परन्तु ऐसा न हो सका और थोड़े ही दिनों के अनन्तर, फिर पुरानी प्रथा लोट आई। उधर मराठी, गुजराती तथा उर्दू और बंगला के नाटको के खेलने के लिए नाटक मण्डलियाँ वन कर तैयार हुई और इधर हिन्दी के कितने ही लब्ध प्रतिष्ट कविवर अपना बहुमूल्य समय पुरानी डफली पीटने में ही नष्ट करते रहे । संस्कृत नाटकों के अनुवाद तो वैसे थे ही, नये-नये पौराणिक नाटक तक अभी इस ढंग से लिखे जाते है जिन्हें दृश्य काव्य कहना मूर्खता के सिवाय और कुछ नहीं, इन्हें श्रव्य अथवा पाठ्य काव्य कहना कदाचित् अधिक उपयुक्त होगा। अन्य भारतीय भाषाओं के नाटकों की तुलना के लिए हिन्दी में अभी कुछ ही दिन पहले तक आधे दर्जन से अधिक नाटक नहीं निकल सकते थे ।
“'बरसत हरषत लोग सब करषत लखे न कोय |
तुलसी प्रजा सुभाग तें भूप भानु सो होय ।॥
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“ऋवितावली' ( स-बाहुक ) का रचना-काल किसी वर्ष विशेषकों नहीं माना जा सकता । उसका
प्रगयन विस्तृत कालकी परिधिको घेरे हुए है। उसमें कविके आखिरी जीवनकी मंजिलके संकेत देनेवाले हन्द प्रकट करते हैं कि ये सं० १६८० में सचे गये ओर बहुतसे छन्द ऐसे मी हैं जो सं० १६८० के बहुत पहलेके हैं यथा, काशीकी महामारी, मीनके शनि तथा रुद्रबीसीसे सम्बन्धित छन्द | डॉ० माताग्रसाद गुप्तने 'ऋवितावली का अनुमानित रचना-काल सं० १६६१ से सं० १६८० तक ठहराया है! जो सबवथा समीचीन होनेके कारण भग्राह्म नहीं |
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विनयका रचनाकार : विनयपत्रिका को तुत्सीकी अंतिम कृति खीकार करनेमें किसीको कोई आपत्ति नहीं। डॉ० माताप्रसाद गुसने इसका र्वनाकाल सं० १६६१-१६८०के बीच ठहराया है |** उसे ग्रहण करनेमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए |
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'्रीकृष्णगीतावदी का रचना-काछ निश्चय करनेके लिए कोई अंतः साक्ष्य नहीं है। अतः इसके विषय-निर्वाह तथा शैढ्ीके अध्ययनके आधारपर डॉ० माताप्रसाद गुप्तने इस संबंध्रमें जो निष्कर्ष निकाला है उसे ग्रहण कर लेनेमें हमें कोई आपत्ति नहीं | गुप्तजीके अनुसार “श्रीकृष्ण गीतावी का रचना-काल सं० १६५८ के लगभग ठहराया गया है |
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गीतावली' के स्वनाकाछका कोई निश्चित प्रमाण नही मिलता | ग्रन्थकी शैली, उसमें समाविष्ट प्रसंगों आदिको दृष्टिमं रखकर विद्वानोंने अपने-अपने विचार प्रकट किये हैं | डॉ० माताग्रसाद गुप्तका अनुमान हमें बहुत कुछ संगत प्रतीत होता है। गुप्तनीके अनुसार गीतावढी' का अनुमित रचनाकाछू सं० १६५३ ठहराया गया है |
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पार्वती मंगल का रचना काल ग्रंथमें ही इस प्रकार दिया गया है--
“जय संबत, फाशुन सुदि पाँचे, गुर दिनु। अस्विनि बिरचेडें मंगछु, सुनि सुख छिनु-छित्ु' ॥”
जय वाहस्त्य वर्ष-प्रणालीका एक वर्ष है। यह सं० १६४३ में पड़ा था । अतः अंथकी रचनातिथि सं० १६४३, फाव्गुन शुक्ला पंचमी, दिन बवृहस्पतिकों मानी जाती है ।
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जानकी-मं गछ :--1627 SAMBAT
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महात्मा तुलसीदासके क्रान्तिकारी स्वरूपक दर्शन उनके जिन कार्योंसे हाते ह उनका संकेत नीचे दिया जा रहा है-(के ) साम्प्रदायिक संघर्षाकों मिटाना और समन्वय खापित करना । ( ख ) संस्कृतकों छोड़ लोक भाषासें लिखना | (ग ) विशिष्ट व्गकीं छोड़कर जनतासे अपनेकों जोड़ना । (घ ) भक्तिक्े द्वारा भगवानकी प्रामिके मार्गकी सबके लिए सरहू एवं सहज बनाना | ( & ) समाजकों संगठित करन, दिशा देंने, उदबीधन करने, तथा भले-बुरेकी पहचान करनेकी कसौटी बताना । ( ञ्र) हिन्दु-ध्मको संस्कृत भाषाके कठघर से निकाछ कर लोक-मापषासे लाना । (छ ) भारतीय संस्कृतिकों विदेशी प्रभावसे बचाना । (ज ) अर्द्धनिद्रा, निराशा और पराज़यके भावमे पढ़े हिन्दू-समाजकों अपने बिखराबके प्रति सचेत करना | (झ ) विदेशी यबन प्रशासकोंकी चर्चा या निन््दा किये बिना भी हिन्दू-जीवनस एक बार पुन; आत्म-विश्वास जगाना |
DR. RAJ PATI DIKSHIT BHU
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तु आर उनका युग
कक
खेती न किसान को, मिखारी का न भीख, वलि, वनिक को बनिज, न चाकर को चाकराी।
जीविका विहीन छोग सीद्यममान सोच वस, कहे एक एकन्ह्र सों, 'कहाँ जाई का करी ?
' दहाँ. पुरान कही, छोफहें बिछोकियत, साँकरे सबे पे राम! गराबरे कृपा करी।
दारिद-द्सानन दवाई दुनी, दीननबंधु ' दुरित-दहलि देखि तुलसी हु हा करी ॥
' कविता० उत्तरकाण्ड छ० ९७ किसान जो भारतके आ्िक जीवनका केन्द्र रहा है उसकी इस दक्शाको दिखाकर कविने मामों समूचे समाजकी गरीबीकी बात कह दी | जीविका विषहदीन छोग सीच्रमान, सोच बस' से जीवनकी बेकारी का बड़ा ही मामिक चित्रण हुआ है । समाजकी नतिक स्थिति और सामाजिक व्यवस्थाकी बुगइयोंपर कशाघात करते हुए तुलसीदास कहते ईं-
-'राज समाज कुसाज कोटि कु कछरूपित कछुप कुचाल नहे हे!
नीति, प्रतीति श्रीति परमित पति हेतुवाद हठि हेरि हुई है।॥
आश्रम-बरन-धरम-विरद्धवित जग, छोक-बेद-मरजाद गई हे।
प्रजा पतित, पाखंड पाप रत, अपने अपने रंग रह हे। सांति, सत्य, सुभ रीति गई
घटि, बढ़ी कुरीति कपट कलई हे |
सीदत साधु, साधुता सोचति, खल बविछसत, हुलूसत खलई है ।।
( बिनय० पद १३५९ ) सामाजिक विघटमकी स्थितिका इससे मार्मिक वर्णन ओर क्या हो सकता है? सामाजिक संकथकी विभीषिकाकों पहचाननेवाला तुल्सीसे बढ़कर अथवा उनके समकक्ष भी कोश दसरा कवि नहीं | जो छोग आजकी सामाजिक स्थिति ओर संकटका वर्णन कर रहे है उनके लिए भी ऊपरकी पंक्तियाँ मीलके पत्थरद्रे समान है | आनस' के भरत सच्चे अर्थम आधुनिक क्रांतिकारी युवककी कोटिमें बिठाये जा सकते है। वे पिताकी आशा, वेदोंकी अगुआ समाजकी मान्यताके कायल नहीं | अत्यन्त शिष्ववाणीमें उन्होंने वसिध्से कहा कि आप जड़ता ओर मोहके वशर्म होकर ही मुझ जेसे अधमसे राज्य-सुख चाहते हैं । बे नतो लोक के व्यंग्यकी परवाह करते हैं न कि पिताक़ी आज्ञा नहीं माननेसे परलोक सुखसे वंचित होना पड़ेगा इसकी चिंता करते हैं। उन्हें दुःख केवल इस बातका है कि उनके कारण राम-लशक्ष्मण-सीताको कष्ट उठाना पढ़ रहा ६--
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डरू न भोहि जग कहहि कि पोचू | पर छोकहु कर नाहि न सोचू ।।
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि छमिं भे सिय राम दुखारी ॥।' यहापर भरतका चरित्र सर्वोत्तम मानवीय रूपमें प्रकट होता है| यहाँ वे रामकों बड़े भाईके रुपमें नहीं देख रहे है। माता, पिता, गुरुकी उपेक्षा करनेवाला बड़े भाईकी भी उपेक्षा कर सकता था | किन्तु उन्हें कष्ट इसः बातका है कि उनके कारण किसी औरको दुःख सहना पड़ रहा है। इस दुःखसे कातर और छत्पटते हुए भरत अयोध्याकी प्रजा और स्वजनोंके साथ रामकों मना छामेके छिए उनके पास जाते दे ।========
जीवन-चरित-विचार- इस वर्गकी आलोचनाएँ जितने प्रचुर परिमाण में प्रस्तुत हुई है उसनेमें अन्य किसी प्रकारकी नहीं । आधुनिक कालके जिन विद्वानोंने इस क्षेत्र में किसी प्रकारका प्रवास किया उनमें एच० एच० विल्सन, गासी द तासी, एक एस० ग्राउस, शिवसिंह सेंगर, बिर्सन, ई० ग्रीब्ल, इण्डि यन प्रेससे प्रकाशित 'मानस'की भूमिकाके लेखकगण, लाला सीताराम, इन्द्रदेवनारायण. शिवनन्दन सहाय, 'तुलसीग्रन्थावली' तृतीय भागके सम्पादकगण, रामकिशोर शुक्ल, रामदास गौड़, श्यामसुन्दर दास और पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, सोरों जिला एटाके गोविन्दवल्लभ भट्ट शास्त्री, गौरीशंकर द्विवेदी, रामनरेश त्रिपानी, रामदत्त भारद्वाज, भद्रदत्त शर्मा, दीनदयाल गुप्त तथा माताप्रसाद गुप्त प्रभृति सज्जनोंके नाम उल्लेखनीय हैं।
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अब शिवसिंह सेंगरको लीजिये । उन्होंने सन् १८७७ ई० में अपने ग्रन्थ 'सरोज'में तुलसीकी एक संक्षिप्त जीवनी प्रस्तुत की, उसीमें किन्हीं पसकानिवासी बेनीमाधवदास रचित एक बृहत् 'गोसाई-चरित'की सूचना दी, साथ ही यह भी लिखा कि उक्त अन्य आपकी चक्षुरिन्द्रियका विषय भी हो चुका था। परन्तु उससे इसका कोई आभास नहीं मिलता कि इन्होंने उक्त अन्यके आधार पर अथवा स्वतन्त्र रीतिसे गोस्वामी- जीकी जीवनी लिखी और न यही पता है कि सेंगरजीने उक्त ग्रन्थ कहाँ देखा था। उनके इस अधूरे संकेतसे कविके प्रेमियोंका कुतूहल शान्त न हुआ और कालान्तरमें उस ग्रन्थको लेकर भी तुलसी के जीवन चरितलेखकोंमें बहुत क्षोद क्षेम रहा; पर उससे कोई प्रयोजन सिद्धि न हुई। प्रियर्सन साहबने जो कुछ लिखा है वह सन् १८८६ ई० में प्रकाशित उनके 'माडर्न वार्नाक्युलर लिटरेचर आव् हिन्दुस्तान में है। इसके अनन्तर उन्होंने सन् १८९३ ई० की 'इण्डियन ऐण्टीक्वेरी में अपने 'नोट्स आन् तुलमीदास'के तीसरे खण्डमें जीवन वृत्तसे सम्बद्ध कथानकों और जनश्रुतियोंका संग्रह उपस्थित किया । सन् १८६८ ई० में 'डेट आबू कम्पोजीशन आव तुलसीदासस् कवित्त रामायन के दूसरे नोटमें तुलसीकी मृत्यु प्लेगसे हुई, यह निर्णय किया । प्रियर्सनने जो विचार किया है वह अवश्य ही बहुत-कुछ युक्त एवं गम्भीर है। इन्होंने जन-श्रुतियों को छान-बीनकर ग्रहण किया है। इसका परिणाम यह हुआ कि इनके परवर्ती आलोचकोंमेसे अधिकांशने इन्हींकी खोजसेलाभ उठाया है सन् १८९० ई० की 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' में प्रकाशित ग्रीब्जका एक छोटा लेख 'गुसाई तुलसीदासका जीवन चरित' यद्यपि जीवनीविषयक कोई नवीन बात नहीं बताता, पर अपनी सुन्दर शैलीके कारण मोहक है। ग्रीजने अंग्रेजीमें हिन्दी-साहित्यका जो इतिहास लिखा है उसमें भी अत्यन्त संक्षेप, किन्तु बड़े ही आकर्षक ढंग से तुलसीके जीवन वृत्तकी चर्चा की है।
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राजपति दीक्षित
बघेली कविता
उनही काजू कतली औ हमरे निता फूटा।
लें का हो ता लइ ल्या नहीं हेन से फूटा।।
रात दिन हम धींच कुटाई।
खुदय गिरी औ तुहीं उचाई।।
महुआ हम बीनी औ तुम लाटा कूटा।
घरय जइ ता धाबय टोरिया।
हरबिन मोर थथोलय झोरिया।।
बपुरी बहुरिगै लिहे मन टूटा।
मालकिन कहय बाह करतूती।
येसे नीक लगा ल्या भभूती। ।
जेही मान्यन मगरोहन वा ता निकरा खूंटा।
उनही काजू कतली औ हमरे निता फूटा। ।
हेमराज हंस
भारतीय भाषाओं के विकास एव इतिहास के प्रति अपनी अनभिज्ञता पर श्रावरण डाल कर जान अथवा अनजान में त्रिपाठी जी ने एक तथ्य की अवहेलना की है, और पाठकों पर भी उस भ्रान्त धारणा को लादना चाहा है। भाषा के इतिहास का थोड़ा भी जानकार व्यक्ति इस बात को भली भाँति समझता है कि हिन्दी क्रमश सस्कृत, पालि, प्राकृत और अपनश की अवस्थाओं के बीच विकसित होती हुई अपने आधुनिक रूप में आई है और तुलसी के बहुत पहले कधीर, जायसी प्रभृति कवियों के काल में ही साहित्य क्षेत्र के अन्तर्गत माकृत न तो बोलचाल की और न साहित्य की ही भाषा के रूप में प्रचलित रह पाई थी। इस ऐतिहासिक दृष्टि से न विचार कर साधारण दृष्टि से ही देखें, तो भी तुलसी का केवल अपने एक ग्रन्थ में एक स्थन पर 'प्राकृत कवि' (जे प्राकृत कवि परम सयाने । भाष जिन्ह हरिचरित बखाने (1) का उल्लेख, उनकी भाषा को 'प्राकृत' का अर्थ दे देने में असमर्थ है। यहाँ पर 'भाषा' से हिन्दीके अर्थ का तथा 'भाषा-व्याकरण से हिन्दी-व्याकरण के ही अर्थ का बराबर ग्रहण होता आया है, न कि 'प्राकृत' का।
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आध्यात्मिक पथ के प्रसिद्ध साधक गोस्वामी तुलसीदास सिद्ध कवि और वाणी केसम्राट् थे । भाषा पर उनका असाधारण अधिकार था। साथ ही उनकी रचनाओं की विशेषता इस बात में है कि उनके भीतर उनका अपना भाषाविषयक निजी दृष्टिकोण व्याप्त है। तुलसी का यह दृष्टिकोण वर्षों से साहित्य के अन्तर्गत चली आती हुई लोक-भापा के व्यवहार की परम्परा में एक महत्त्वपूर्ण स्थिति का द्योतक है। वे अपनी लगभग सारी व्यक्तिगतप्रवृत्तियों के भीतर समकालीन भाषा-सम्बन्धी मान्यताओं का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते दिखाईदेते हैं। यही कारण है कि उनकी भाषा उनकी विभिन्न रचनाओ में विविध रूप-रगो के साथ विद्यमान है ।
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सनातन धर्म परिषद की गोष्ठियां विगत २३ अप्रैल ६४ को लखनऊ में एक विचार-गोष्ठी प्रदेश के पूर्वमुख्यमंत्री पं० श्रीपति मिश्र की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। मुख्य समागत न्यायमूर्तिश्री तिलहरीने इसमें स्पष्ट उद्घोष किया कि तुलसी अवध अंचल में ही जनमे थे।विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो० महेन्द्र सिंह सोढा और हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो० सूर्यप्रसाद दीक्षित ने इस खोज की प्रक्रिया पर विस्तृत प्रकाश डाला। इस गोष्ठी केअनेक वक्ताओं, शिक्षकों, पत्रकारों साहित्यकारों ने राजापुर (गोण्डा) के जन्म भूमिहोने की पुष्टि की । सनातन धर्म परिषद की बम्बई संगोष्ठी (१६६८) हिन्दी साहित्यसम्मेलन प्रयाग संगोष्ठी तथा हिन्दी संस्थान लखनऊ में आयोजित संगोष्ठी काभी यही प्रतिपाद्य रहा। परिषद् ने अनूप जलोटा, श्री लल्लन प्रसाद व्यास आदिके कई कार्यक्रम यहां आयोजित करायें हैं। विगत २ अगस्त १६६६ को राजापुर(गोण्डा) में आयोजित संगोष्ठी में पं० राम किंकर उपाध्याय जी ने घोषणा की'आज मैं गोस्वामी जी की जन्म भूमि में आ गया हूँ । इस गोष्ठी में अयोध्या केअनेक सन्तों तथा कई प्रमुख हिन्दी विद्वानों ने अपने-अपने उद्गार व्यक्त किएजिनमे उल्लेखनीय है- सर्वश्री नृत्यगोपालदास जी, माधवाचार्य जी,राममंगलदास जी, पं० बलदेव प्रसाद चतुर्वेदी,रामानुजाचार्य जी, स्वामी पुरषोत्तमाचार्य जी।इसी क्रम मे २० अगस्त १६६६ को वाल्मीकि भवन, अयोध्या में "तुलसी सम्मेलनआयोजित किया गया, जिसमें प० श्री पति मिश्र एवं स्वामी नृत्यगोपालदास नेसूकरखेत के पक्ष में महत्वपूर्ण वक्तव्य दिये। वस्तुतः सनातन धर्म परिषद् और डॉ०भगवदाचार्य की सक्रियता इस क्षेत्र में सर्वाधिक सराहनीय है।
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राजापुर गोष्ठी 'तुलसी सेवा समिति' राजापुर (बाँदा की ओर से १० अगस्त १६६७ को एकसगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमे अनेक विद्वान (तुलसी विशेषज्ञ) सम्मिलितहुए। इस अवसर पर "राजापुर तुलसी की गाथा नामक एक स्मारिका भीलोकार्पित की गयी। इस स्मारिका का समवेत स्वर यही है कि विद्वानों ने राजापुर(बॉदा) के अतिरिक्त तुलसीदास की जन्म स्थली अन्यत्र होने की सम्भावना व्यक्तकी है,जो विकृत मस्तिष्क का अनर्गल प्रलाप है। और यह एक षड़यन्त्र है। इनविद्वानो के मतानुसार तुलसी जन्म स्थली का विवाद ही नही उठाया जाना चाहिएथा। वे यह तो मानते हैं कि राजापुर (दादा) में तुलसी के पैदा होने का कोई पुष्टप्रमाण (यानी सनद नही है,लेकिन पिछले २०० वर्षों से राजापुर (बाँदा) को हीअधिकतर विद्वानों ने जन्मस्थली मान रखा है, इसलिये उसके समक्ष अब प्रश्नचिन्हनहीं लगाया जा सकता है। इन विद्वानों को यह समझा पाना कठिन हो गया हैकि अनुसंधान के क्षेत्र में कोई भी मान्यता अंतिम नहीं होती, इसलिये नये तथ्योएव तक के आधार पर पुनः पुनर्विचार करते रहने के लिये हमें अपने मस्तिष्क केगवाक्ष सदैव खोल कर रखने होंगे। इन संगोष्ठियों में जितनी दलीलें दी गयी हैं, वे दीर्घकाल तक तुलसी केचित्रकूट वासी होने का प्रमाण हैं, जबकि प्रश्न जन्मस्थली का है। प्रसिद्ध उक्तिहै- "वादे वादे जायते तत्वबोध । हमें आशा करनी चाहिए कि इन विचारगोष्ठियोद्वारा हम कभी न कभी किसी समवेत निष्कर्ष पर पहुंचेगें। अब वह समय दूर नहींहै, जब क्षेत्रीय राजनीति अथवा रागद्वेष का ज्वर और ज्वार थम जायेगामानसकार की अन्तःप्रेरणा से हिन्दी लोकमानस में सद बुद्धि पूर्ण साहित्यिक न्यायका संचार होगा और तब नीर क्षीर विवेक के सहारे तुलसी की जन्मस्थली का सगतसमाधान भी प्राप्त हो जायेगा।
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गोस्वामी जी के जीवनवृत्त के सम्बन्ध मे विभिन्न तिथियों के उल्लेख किये गये हैं। उन पर भी विचार करना आवश्यक है। उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं और रचनाओं के वर्ष विद्वानों ने इस प्रकार निर्धारित किये हैं- १. जन्म सं० १५५४ श्रावण शुक्ल सप्तमी २.यज्ञोपवीत (सं० १५६१) शिक्षा रामानंद पीठ काशी में गुरुशेष सनातन जी के साथ । ३. रामलला नहछू की रचना- (सं०१६१६) पार्वती मंगल (१६१६) जानकी मंगल (१६१६) ४. गीतावली की रचना सं० १६१६ ५..श्री कृष्ण गीतावली की रचना (१६१६ से १६२८ के मध्य) ६ कविन्त रामायण (कवितावली) - १६२८ ७. 'श्री रामचरितमानस रचनारंभ वैशाख ६,१६३१ समाप्ति रामविवाह सं० १६३३८विनय पत्रिका सं० १६३६ ६. दोहावली, सं० १६४० १०. सतसई, सं० १६४२ ११. बरदै रामायण, हनुमान बाहुक, वैराग्य संदीपनी,रामाझाप्रश्न सं० १६७०/१२. निधन श्रावण कृष्ण ३सं० १६८० इन तिथियों से स्पष्ट है कि उनका रचनाकाल ६२ वर्ष की अवस्था से शुरू हुआ और ११६ की आयु स० १६७० (५४ वर्षो) तक चलता रहा। १३. जीवन के अन्तिम १० वर्षों तक गोस्वामी जी ने कोई लेखन कार्य नही किया। १४. उन्हें कुल १२६ वर्षों का जीवन मिला। इस अवधि मे उन्होंने अकबर (१५६३-१६०५),जहांगीर (१६०५-१६२७) शाहजहाँ और औरंगजेब का शासन काल देखे ।
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गोस्वामी जी ने "रामचरितमानस” में चूँकि सूकरखेत का उल्लेख कर दियाहै, इसलिये राजापुर-चित्रकूट, सोरों और राजापुर (गोण्डा) के पक्षधर अपने-अपनेस्थानों को असली सूकरखेत सिद्ध करने में जुटे हुए हैं। विद्वानों ने मिलजुलकरपूरे देश में ३५ सूकरखेत खोज निकाले हैं। वस्तुतः सूकरखेत का सम्बन्धमहावाराह के उपासना क्षेत्र से है। प्रतिहारवंशी वाराहावतार या महावाराह कोआराध्य मानते हैं, इसलिये उत्तर भारत में जहाँ जहाँ प्रतिहारों का राज्य था, वहाँवाराह-वाराही के मन्दिर प्रायः मिल जाते हैं। चित्रकूट भी वाराहक्षेत्र में आता है।यद्यपि आज तक चित्रकूट से संबन्धित विद्वानों ने अपने आस-पास कहीं किसीवाराह मन्दिर या सूकरखेत का दावा नहीं किया था। अब तक उनकी मान्यता यहरही है कि तुलसी का जन्म यहाँ राजापुर में हुआ था। यज्ञोपवीत के पश्चातलगभग १५ वर्षों की अवस्था में वे सूकरख्त चले गये थे और वहाँ राम-कथासुनकर और फिर काशी में "नानापुराण निगमागम" का ज्ञान प्राप्त करके साहित्यसाधना में प्रवृत्त हुए थे। इस बीच उन्होनें राजापुर, अयोध्या, चित्रकूट एवं काशीमे निवास किया था। किंतु विगत दो-तीन वर्षों में चित्रकूट के पक्षधरों को यह लगा कि इसविवाद का काफी दारो मदार सूकरखेत पर है। इसलिये उन्होंने कामदगिरिपरिक्रमा मार्ग (चित्रकूट ) में एक ऐसी चट्टान खोज निकाली, जिसकी आकृतिकुछ-कुछ वाराह से मिलती हुई है। पास ही दो छतारियां मिल गयीं और एकपहाड़ी गुफा अथवा झोपड़ी। इन छतरियों पर वार्निश पेण्ट से गुरु नरहरि औरतुलसीदास का नाम लिखा दिया गया। वहाँ पर दो मूर्तियां रखा दी गयी और उसझोपड़ी को नरहरि आश्रम का नाम दे दिया गया। अर्थात् सूकर खेत वाराह मन्दिरऔर नरहरि आश्रम सब चित्रकूट में ही प्रकट हो गये। पहले यह तर्क दिया जारहा था कि राजापुर (बाँदा) में उत्पन्न कोई बालक लगभग ३५० किमी० की यात्राकरके सारों वाले अथवा लगभग २०० किमी० दूर पसका (गोण्डा)वालें सूकर खेततक कैसे पहुँच पायेगा? वहा बार बार कैसे जा सकेगा? जबकि परिवहन केसाधन थे नहीं? इस तर्क को निरुत्तर करने के लिये राजापुर से मात्र ३० किमी०की दूरी पर ही अब सारी व्यवस्था करा दी गयी है। चित्रकूट जैसे पवित्र तीर्थ मेतुलसी जन्मभूमि এ ढूंढने से न जाने कितनी गुफायें, अनाम खण्डित मन्दिर, छतरियाँ या समाधियाँ मिलजायेगी। मात्र एक झण्डा और एक साइन बोर्ड लगाकर रातो रात कोई भी साक्ष्य तैयार किया जा सकता है। यह अपकृत्य मात्र इस कथन का प्रमाण है किराजापुर चित्रकूट के पक्षधरों को अपना दावा दुर्बल प्रतीत होने लगा है और वे अब उसकी क्षति पूर्ति के लिये अन्य प्रकार के कृत्रिम साक्ष्यों को प्रायोजित करने में लगेहुए हैं।
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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन है कि सूकरखेत को भ्रम से सोरो मान लिया गया है। सूकर खेत गोण्डा जिले में सरयू के किनारे एक पवित्र तीर्थहै जहां आस-पास के लोग स्नान करने जाते हैं। यहां मेला लगता है" (हिन्दीसाहित्य का इतिहास, पृष्ठ १२६)
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प्रसिद्ध कथा वाचक बंदन पाठक ने दी है। उनकीमान्यता के आलोक में बालक राम जी विनायक ने एक "तुलसीनामावली" प्रस्तुतकी है। इस संबंध में एक लेखमाला जबलपुर के 'युगधर्म' के १४ जुलाई १९८५ मेआठ अंकों में प्रकाशित हुयी थी। इसके पीछे महंत गंगादास जी का कुछ अपनाशोध कार्य रहा है। इन सबके अनुसार चार तुलसीदास बताए जा रहें है-- तुलसी जन्मभूमि टे प्रमाण स्वरूप बंदन पाठक द्वारा रचित कविता के ये अंश प्रस्तुत किये गये"तैसे तुलसी चारि भये हैं नर भाषा के । चारो बरने रामचरित भगती रस छाके । एक महारिषि आदि कवि द्विज बंदन भये शापवश । मानसजुत बारह रतन प्रकटे धारे शांत रस ।। दूजे तुलसी तुलाराम जी मिसिर पयासी । देवीपाटन जनमकुटी तुलसीपुर बासी । तीसरि पत्नी रत्नावली कटु बचनहिं लागी । रोवत चले बिसारि भवन भये रसिक बिरागी । रामायन तिनहू रचे लवकुश मानस संत हित । द्विज बंदन 'जानकी विजय',गंगा कथा,क्षेपक सुकृत ।। तीजे तुलसी जनम नाम शुचि सोरों वारे । छप्पय, छन्दावली, कुण्डलियां, कड़खा चारे । चौथे तुलसी संत हाथरस वारे भारी । 'घंट रामायण' रचे सोहागिन सुरति बिहारी ।। द्विज बंदन तीनों कथै श्रीमानस छाया छुए मानस अधिकारी भले नाम उपासक सब भए ।। इनके अनुसार मध्य युग में समानान्तर ये चार तुलसी हुए हैं- मानस कार तुलसी (२) देवीपाटन (तुलसीपुर) वाले तुलाराम मिसिर उर्फ तुलसी(१) (3) सोरों (जिला एटा) वाले तुलसी (४) हाथरस वाले संत तुलसी । इन चारों की जन्ममृत्यु-तिथि, माता-पिता पत्नी आदि से युक्त वतथा रचनाओं का उल्लेख इस प्रकार किया गया है- In मानसकार तुलसी तुलाराम तुलसी सोरोंवाले तुलसी हाथरस तुलसी साहिजन्मतिथि श्रावणशुक्ल चैत्रशुक्ल उपलब्ध १८२० संवत७ संवत १५५४ एकादशी नहीं संवत् १६८७ सन्मभूमि 03 २. जन्मस्थान राजापुर देवीपाटन सोरों ३ निधनतिथि श्रावणकृष्ण ३ संवत् १६८० ४. बचपन का रामबोला तुलाराम नाम तुलसीदास गोसाई हाथरस ज्येष्ठ शुक्ल संवत् १८६६ या १६०० तुलसी साहिब ५ पिता का आत्माराम दुबे मुरारि मिश्र नाम ६. माता का हुलसी देवी नाम 19 पत्नी का (अविवाह) रत्नावली रत्नावली नाम (तीसरी पत्नी) ם. बचपन की अति दरिद्रता धनधान्य सामान्य सामान्य आर्थिक दशा युक्त सम्पन्न ६. वैराग्य का आत्मप्रेरणा पत्नी के पत्नी से आत्म प्रेरणा कारण वाक्वाण प्रेरणा १०. जीवनी के मूल गोसाई १. इतिवृत १. गुलिस्तां आत्मचरित स्रोत चरित, भवानी तुलसी -ए-बेदिल धटरामायण दास (बाबा २. तुलसी २. तुलसी बेनीमाधवदास) चरित तत्व प्रकाश ११. ग्रन्थ रामचरित मानस लवकुश छप्पय धटरामायण गीतावली काण्ड, रामायण, कविता वली गंगावतरण, कुंडलिया विनय पत्रिका जानकीस्तव रामायण, दोहा वली दंड,क्षेपक, छंदावली जानकी मगल स्फुट रामायण पार्वती मंगल कडरवा वैराग्य संदीपन रामायण रामलला नहहू, कृष्णगीतावली, रामाज्ञा प्रश्न, तुलसी जन्मभूमि बरवै रामायण 86) १२ प्रकाशक गीता प्रेस गोरखपुर वेंकटेश्वर मुशी नवल वेल्वेडियर प्रेस बम्बई किशोर प्रेस लखनऊ १८७४ ई०
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तुलसीदास और उनकी कविता- इस अन्ध के अन्तर्गत श्री रामनरेश त्रिपाठी ने तुलसीदास जी के काव्य के अन्य पक्षों के साथ-साथ उनकी भाषा के विषय में भी यत्र तत्र स्फुट रूप में अपना विवेचन प्रस्तुत किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उक्त विवेचन के पीछे त्रिपाठी जी के किसी विशेष शास्त्रीय अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पता उतना नहीं चलता, जितना कई अन्य अवान्तर प्रसगों पर बल देने की प्रवृत्ति का, उदाहरणार्थ, अपनी इस धारणा को प्रमाणित करने की उनकी बलवती प्रेरणा कि तुलसी का जन्म-स्थान सोरों ही था। कुछ भी हो, अपनी सारी न्यूनताओं के साथ उन्होंने, तुलसी की भाषा के कलापक्ष तथा भाषावैज्ञानिक पक्ष के कतिपय प्रचलित एवं व्यापक अगों के आधार पर तुलसी द्वारा व्यवहृत मुहावरों, कहावतों और अलंकारों आदि का स्फुट संकलन करते हुए, तथा कुछ प्रान्तीय भाषाओं और कुछ हिन्दी प्रदेश की बोलियों के कतिपय शब्द-रूपों को ढूँढ निकालने का उद्योग करते हुए, जो सामग्री हमारे समक्ष रखी है, उसका प्रस्तुत अध्ययन में उपयोग किया गया है। वस्तुतः उनके प्रयत्न में यदि सब से अधिक खटकने वाली बात कोई है तो वह यह है कि उनकी दृष्टि प्रायः अन्तरंग विश्लेषण में न पहुँच कर बहिरंग आधार पर ही विशेष केन्द्रित रही। यही कारण है कि विविध रूपों के सकलन में वे अपने परिश्रम द्वारा जितनी सफलता प्राप्त कर सके है उतनी उन संकलित रूपों कीशास्त्रीय व्याख्या एवं मूल्यांकन करने में नहीं । कहीवहीं तो उनके निर्णय और निष्कर्ष बड़े ही हल्के स्तर पर उत्तर आए है। इन्ही बातों के फलस्वरूप उनकी मान्यताओं में अपेक्षित गांभीर्य का अभाव रहा और उनका श्रम उपयोगी होते हुए भी विशेष विश्वसनीय नहीं सिद्ध हो सका ।
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मानस-व्याकरण- मानस सघ, रामवन (सतना) से प्रकाशित यह ग्रंथ हिन्दी में रामचरितमानस की भाषा के एक महत्त्वपूर्ण पक्ष-व्याकरण-के अध्ययन का ( १०) पहला प्रयास है। इस दृष्टि से, विषय तत्व की समानता के आधार पर, हम इसे एडविन ग्रीन्स के 'रामायणीय व्याकरण (नोट्स थान दि ग्रॅमर श्राफ रामायण ग्राफ तुलसीदास) के जोड़ में रख सकते हैं। ग्रंथ की उक्त ऐतिहासिक उपयोगिता के विषय में कोई अविश्वास न करते हुए भी, उसमें उपलब्ध सामग्री और उसमें अपनाए गए दृष्टिकोण की वैज्ञानिक उपादेयता सदेह से खाली नहीं कही जा सकती। यह घोषित कर के, कि 'तुलसी ने भाषा शब्द से 'प्राकृत भाषा' का अर्थ ग्रहण किया है, त्रिपाठी जीकदाचित सत्य से बहुत दूर चले गए हैं। वे स्पष्ट लिखते हैं :- "यह ग्रंथ अथ से इति तक प्राकृत भाषा में है और श्लोक भी पृथ्वीराजरायसो के श्लोकों की भाँति प्राकृत में है, क्योंकि प्राकृत नियमों से नियमित है और प्राकृतव्याकरण के अनुसार शुद्ध हैं
परिजन हैं उल्लास में, सबके मन में मोद।।
आशा दसमी शुभ तिथि, सुदी का स्वाति नक्षत्र।
दो हज्जार बायसी, का सम्बत पावस सत्र।।
नाती आयुष्मान भव , रहे ख़ुशी आह्लाद ।
सबकी है शुभकामना सबका आशीर्वाद।।
ग्राम पंचायत बड़गांव में 29 जून को शाम 7.30 बजे से राष्ट्रीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया है । उल्लेखनीय है कि दिन में वरिष्ठ पत्रकार साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी संतोष कुमार द्विवेदी जो लोकनाथ के उपनाम से कविताएं लिखते हैं के कविता संग्रह "खुरदुरे पत्थर" का विमोचन सामुदायिक भवन उमरिया में होगा, उसके बाद उनके जन्मस्थान बड़गांव में राष्ट्रीय कवि सम्मेलन आयोजित है जिसमें देश भर से कवि, गीतकार, ग़ज़लकार शामिल होंगे ।
ग्राम पंचायत बड़गांव के संयोजन में हो रहा मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का यह आयोजन लब्धप्रतिष्ठ कवि, आलोचक प्रो. दिनेश कुशवाह अध्यक्ष- हिंदी विभाग, अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा, की अध्यक्षता और सुविख्यात कवि श्री अष्टभुजा शुक्ल के मुख्य आतिथ्य में संपन्न होगा ।
आयोजन का शुभारंभ ख्यात लोक गायक नरेंद्र बहादुर सिंह, अरविंद पटेल और आरती मालवी के बघेली लोक गायन से होगा ।
कवि सम्मेलन में शामिल होंगे राष्ट्रीय ख्याति के कवि
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कवि सम्मेलन में राष्ट्रीय ख्याति के कवि रचनापाठ करेंगे । जिसमें मुख्य हैं यश मालवीय ( इलाहाबाद), केशव तिवारी (बांदा), वेद प्रकाश शर्मा ( गाजियाबाद), श्री अभय तिवारी (जबलपुर), विनोद पदरज (राजस्थान), इंदु श्रीवास्तव (जबलपुर) शरद जायसवाल हास्य कवि (कटनी), हेमराज हंस और रावेंद्र शुक्ल बघेली कवि प्रमुख हैं ।
श्री शिवशंकर सरस जी, बोली के चउमास। उनसे छरकाहिल रहैं, तुक्क बाज बदमास।। सादर ही सुभकामना, जनम दिना कै मोर। रिमही मा हें सरस जी , जस पा...